आष्टा। ज्ञान, ध्यान और तप में लीन वाले गुरु पूज्यनीय और प्रशंसनीय है।आचार्य समंतभद्र स्वामी ने बताया गुरु कौन और कैसे होते हैं,आपने गुरु का स्वरुप बताया। आचार्य समंतभद्र स्वामी की बहुत कृपा है। जिसके जीवन में गुरु नहीं ,उसका जीवन शुरू नहीं। तपस्वी गुरु प्रशंसनीय है। जहां कपड़ा है ,वहां लफड़ा है और मोक्ष नहीं।जिस निमित्त से रोग हो रहा है, उसे दूर करना होगा। मंदिर में सहज और सरल बनकर आना चाहिए।यह प्रयास करें कि कभी भी आपसे किसी भी जीव की हिंसा नहीं हो।श्रावक विवेकी होता है,इस लिए विवेक से धर्म -आराधना करना चाहिए। पंथवाद में अति हो रही है। जहां अति वहीं से गड़बड़ी शुरू हो जाती है। सिद्ध अवस्था तब मिलेगी जब आप पाप पुण्य छोड़ोगे मनमर्जी और अहंकार के कारण पंथ चलता है और यह पंथवाद दुखदाई है।

उक्त बातें नगर के श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन दिव्योदय अतिशय तीर्थ क्षेत्र किला मंदिर पर चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य आर्जव सागर मुनिराज के परम प्रभावक शिष्य मुनिश्री सानंद सागर मुनिराज ने रत्नकरंड श्रावकाचार श्रवण कराते हुए कही। आपने कहां कि तेरा और मेरा करना नुकसान दायक है। विवेक लगाकर काम करें। पुण्य बढ़ाने के लिए देव, शास्त्र और गुरु की आराधना कर जिनवाणी श्रवण करें। उत्कृष्ट खेती करें, स्वयं का व्यापार करें, जैन समाज के लोग व्यापार करने के साथ अनेक लोगों को नौकरी देते हैं। मुनिश्री सानंद सागर मुनिराज ने कहां कि आज लोग धन पैसा वाले को देखते हो,भले ही लड़का सप्तव्यसनी हो। जबकि व्यसनी से दूर रहें, धर्मात्मा परिवार के घर पर लड़की व लड़का देवें।धन – पैसा पुण्य की दासी है। अनेक लोगों को करोड़ पति से रोड़ पति होते देखा जा सकता है।देव दर्शन, रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग और पानी छानकर पीएं।कुलाचारण का पालन करें, अहिंसा के पुजारी हो, मर्यादा का भोजन करें। पहली प्रतिमा का पालन सभी करें।नर्क, त्रियंच गति में जाना है तो आगम का पालन नहीं करते हैं।परिग्रह किसे कहते हैं, भगवान की भक्ति करने से मोक्ष मिल सकता है।अग्नि है जब तक देश में चर्तुविधि संघ रहेगा। पुण्य प्रवृति सुख में ले जाएंगी। पुण्य- पाप है तब तक संसार है। सम्यकदृष्टि को कुछ गुण होते हैं। बहुत विकल्प चलते हैं, इसलिए संसार में उलझे हुए हैं।साधु के दो कर्तव्य ज्ञान और ध्यान करना है। मिथ्या दृष्टि अशुभ ध्यान करते हैं और जो मनमर्जी करें वह मिथ्या दृष्टि है। ध्यान चार प्रकार के होते हैं।मिथ्या दृष्टि कहीं भी जाएं,भले ही मंदिर में जाएं वह आद्रध्यान करता है।मंदिर में आते-आते कभी तो सम्यकदर्शन होगा। मनुष्य पर्याय से नारकी और नारायण अर्थात भगवान भी बन सकता है। कभी भी मिथ्या दृष्टि भगवान बनने का पुरुषार्थ नहीं करता है। मिथ्यात्व संसार का कारण है और सम्यकत्व मोक्ष का कारण है।कुलाचार का पालन कर प्रथम प्रतिमा ले । धर्म कभी कलंकित नहीं होता, व्यक्ति ही कलंकित होता है। अरिहंत पुरम मंदिर में मुनिश्री प्रवर सागर जी मुनिराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि जब व्यक्ति के भाव शुभ होंगे और लेश्याएं शुभ होंगी तभी शुभ पुरुषार्थ प्रारंभ हो सकता है , अर्थात वह 6 व्यक्ति उस वृक्ष को देख रहे थे जो कृष्ण लेश्या वाला व्यक्ति था और विचार कर रहा था पूरा वृक्ष मुझे चाहिए। अतः वह कृष्ण लेश्या से भरा हुआ था और उसका परिणाम काला था । कोयला, काजल कैसा होता है अर्थात काला होता है, व्यक्ति अपने मकान को कोयले से पुतवाता है अथवा नहीं मकान को चूने से पुतवाता है, क्योंकि काला रंग जो होता वह अशुभ का सूचक होता है और जो सफेद रंग होता है वह सुख, शांति, समृद्धि का सूचक होता है । मुनिश्री प्रवर सागर मुनिराज ने कहां यदि कोई व्यक्ति मंदिर में काले कपड़े पहने आता तो वह अशुभ का सूचक होता है, अतः जो भाव होगा वह शुभ नहीं हो सकता। कृष्ण लेश्या वाला जो व्यक्ति होता है वह आर्त और रौद्र ध्यान से युक्त होते हैं, आज के व्यक्ति हिंसा करने में ही आनंद मानते हैं जो जीवों को मारने की दवाइयां बेचते हैं वह संकल्पी हिंसा को बढ़ावा देते हैं , लक्ष्मण रेखा जो खींची जाती है वह भी संकल्पी हिंसा के ही अंतर्गत आती है। जब जीव के संकल्पी हिंसा के भाव होते हैं तो रौद्र परिणाम चलते हैं । किसी की वस्तु या धरोहर का हरण कर लिया तो उसमें आनंद मानकर चौर्यानंदी रौद्र ध्यान को बढ़ावा देते हैं। झूठ बोलकर अर्थात् कोई व्यक्ति यदि आष्टा में है और किसी के फोन आने पर उसको इंदौर या भोपाल में हूं ऐसा बता देना मृषानंदी रौद्र ध्यान को बढ़ावा देना , ऐसा करने से निरन्तर अशुभ कर्म बढ़ता है और व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं अपनी आत्मा को काला करता है। यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार के व्यापार को करता है तो वह आरंभी और उद्योगी हिंसा करता है , व्यापार करने पर जो धन आता है उससे यदि आप दान करते हो तो पुण्य का संचय होगा और यदि उस धन को गलत कार्यों में लगा देते हो तो पाप का ही संचय होगा।
