
आष्टा । हमें इस नश्वर देह को इस बार सांसारिक गहनो को छोड़कर चातुर्मासिक अलंकार से सजाना है । जैसे प्रभुपूजन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि से तन-मन को सुशोभित करना है। साध्वीवर्या नें अपने प्रवचन में समय की महत्ता को उल्लेखित करते हुये कहा कि हमें चातुर्मास का जो सुनहरा समय मिला है उसका सदुपयोग कर लेना चाहिये।

समय के सदुपयोग से ही कर्मो की निर्जरा और सुनहरा भविष्य संभव है तथा समय को न तो खरीदा जा सकता है और न बीते समय में पुनः लौटा जा सकता है। लेकिन वर्तमान समय को सुधारा जा सकता है और हमें यही करना है।

साथ ही साध्वीवर्या नें श्रावक जीवन के कर्तव्य से भी सभी का परिचय कराया और नमस्कार महामंत्र का लय-ताल के साथ कैसे जप करना है और जप करते समय विभिन्न मुद्रायें कैसी होनी चाहिये इसका भी विस्तृत ज्ञान प्रवचन के माध्यम से सभी को समझाया ।

साध्वीवर्या नें तप की महिमा का भी वर्णन करते हुये कहा कि अतृप्त और असंतुष्ट मन को नियंत्रित करने का एकमात्र साधन तप है। तप के द्वारा ही पूर्वकृत कर्मो का क्षय होता है। जिस प्रकार तंतु के बिना वस्त्र नहीं बनते हैं, शक्कर के बिना मिठाई नहीं बनती है, जमीन के बिना मकान नहीं बनता है उसी प्रकार तप के बिना कर्माे की निर्जरा नहीं होता है और कर्माे की निर्जरा के बिना मोक्ष प्राप्त करना असंभव है।

अनंतलब्धिनिधान श्री गौतम स्वामी की प्रतिमा का विधान के साथ गुरूपूजन करते हुये उनकी प्रतिमा को भी विराजित किया गया जिसका सौभाग्य श्रीमान् सुन्दरलाल जी प्रकाशचंद जी वोहरा परिवार को प्राप्त हुआ। अंत में शाश्वत् बहू मण्डल द्वारा नवकार महामंत्र की महिमा को बताते हुये एक लघु नाटिका प्रस्तुत की गई ।
