आष्टा। इस संसार में मुनि चर्या श्रेष्ठ चर्या है, मुनि धर्म एवं चारित्र अंगीकार करने से अनंत सुख की प्राप्ति होती हैं।इस आचरण का अंश मात्र भी यदि हमारे जीवन में आता है तो संयम पथ पर आगे बढ़ते हुए अपने जीवन का कल्याण कर सकते हैं और यह सब संभव होगा गुणानु वृद्धि संस्कार शिविर से, जिसमें हम सबको यह अवसर प्राप्त होने वाला है। क्षमा भाव रखें, ईर्ष्या न करें, शांति चाहते हो तो सभी को क्षमा करें।जीवन पर संगति का विशेष प्रभाव पड़ता है। कुछ लोगों का मानस होता है मैं अगर अच्छा हूं तो मैं अच्छा ही रहूंगा किंतु यह सत्य नहीं है ,अच्छी संगत का असर हमारे जीवन पर अच्छाइयों के संस्कार के रूप में दिखाई देता है ।
इसी के साथ बुरे की संगत होने पर बुराइयों का असर भी दिखाई देता है । उक्त बातें नगर के अरिहंत पुरम अलीपुर श्री चंद्र प्रभ मंदिर में चातुर्मास हेतु विराजित पूज्य गुरुदेव
मुनि श्री विनंद सागर जी महाराज ने भक्तांबर महामंडल विधान के 28 -29 वें दिन 27 -28 वे काव्य का शुद्ध उच्चारण करवाया। शत्रु का नाश करने वाला इस काव्य का फल मुनि श्री ने बताया हमारा सबसे बड़ा शत्रु कर्म है ।यह आठ प्रकार के होते हैं ,सबसे ज्यादा शक्तिशाली शत्रु मोहिनीय कर्म है ।इसे कर्मों का राजा भी कहा जाता है। यह कर्म जब तक हमारे पर हावी रहेगा तब तक हम अपने स्वरूप को पहचान नहीं सकते,अपने स्वभाव को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यह उसी प्रकार है जैसे नशे में व्यक्ति भैंस एवं बहन में अंतर नहीं कर पाता।
इस प्रकार हम भी मोह मद के कारण इस संसार में क्या गलत है, क्या सही है उसकी पहचान नहीं कर पाते हैं।मोह महातम पियो अनादि भूल आपको भरमत वादी।मोह हमारा सबसे बड़ा शत्रु है और हम अपने शत्रु के साथ ही रह रहे हैं ,इसलिए दुख रुपी संसार मैं दुखी रहते हैं ।हमेशा कोई ना कोई दुख हमारे जीवन में बना रहता है । 27 वे काव्य की आराधना का फल ऐसे मोह रूपी शत्रु को दूर करना है। मुनिश्री ने कहा प्रशंसा ऐसा गुण है, जिससे शत्रु भी मित्र के रूप में परिणत हो जाता है ।गलतियां सबसे होती हैं ,किंतु हमारी दृष्टि गलतियों पर जा रही है कि गुणों पर यहां विचारणीय बात है। हमें गलतियों पर ध्यान ना देते हुए गुणों पर ध्यान देना चाहिए।इस संसार में दूसरो को खुश रखना सबसे कठिन कार्य है।
संसार में जो गृहस्थ है ,वह सब को खुश रखना चाहता है ।परिवार, बेटी, बेटा, मां ,बहन आदि। जबकि सबको संतुष्ट करना असंभव है, स्वयं को खुश करना सरल है। यहां कार्य मुनि करते हैं, जो सरल है वही संतुष्ट हैं और जो संतुष्ट हैं ,वही सुखी है ।अहंकार को जीतना कठिन है, इसे वही जीत सकता है जो विनम्र हो ,विनीत हो।अहंकार आने के कारण जीव की बुद्धि इतनी हीन हो जाती है कि वह उसके वंश के नाश का कारण बन जाती है ।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण लंकापति रावण है। जिसके 1 लाख पुत्र और सवा लाख नाती थे, किंतु मरण उपरांत एक भी उसके समक्ष नहीं था। रावण प्रतिनारायण तीन खंड का राजा था ,लेकिन पाप के उदय आने पर नारायण के एक ही बाण से मरण को प्राप्त हुआ और जहां विनम्रता होती है ,वहां स्वतः ही सारे गुण आ जाया करते हैं ।इसका सबसे अच्छा उदाहरण राम है ,जिन्होंने गुणों की ओर अपनी दृष्टि रखी और दोषों को विसार दिया।मुनिश्री ने 27 वे श्लोक का अर्थ बताते हुए कहां की हे भगवान समस्त उत्तम गुण आप में तथा समस्त अवगुण अहंकारी में समा गए तथा स्वप्न मात्र में आपमें कोई दोष नहीं दिखता इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
मुनि श्री विनंद सागर जी ने 28 वें काव्य का फल सर्व मनोरथ पूर्ण करने वाला है।सर्व संकल्प को पूर्ति करने वाला यह काव्य है ।संकल्प एक होता है, लेकिन उसके विकल्प हजार हुआ करते हैं ।जैसे मकान बनाने का संकल्प यदि लिया है तो मकान बनाने के लिए पहले रेत ,गिट्टी,लोहा,ईट,इंजीनियर,मजदूर एवं बनाने के लिए ठेकेदार आदि सभी के विकल्प आ जाते हैं।यह तीन प्रकार से समझे जा सकते है विकल्प, जल्प, कल्प ।एक कार्य को पूर्ण करने के लिए जो व्यवस्थाएं जुटाई जाती हैं वह सब विकल्प हैं।जल्प वह है जो हम विचारे नहीं फिर भी दिमाग में घूमता रहता है।कल्प वह है जिसकी आवश्यकता नहीं फिर भी मन उसमें डूबा रहता है ,वह सब कल्पना है ,जितनी कम कल्पनाएं होगी हम उतने ही सुखी होंगे।कल्पनाओं से मुक्त होने पर ही मुक्ति होती है।इसलिए हम महातप करने वाले मुनिराजों की आराधना करते हैं ।जो महान विद्या के धारी होते हैं।
ऐसा महान तप करने वाले तपस्वी सम्राट आचार्य सन्मति सागर जी महाराज थे, जिन्होंने सिंह निसकिडित व्रत की कठिन साधना की। जिसमे 1 व्रत 1 आहार ,2 व्रत 1आहार, इस प्रकार क्रम से उपवासों की बढ़ती जाती है।इस व्रत में 120 दिनों में केवल 20 आहार हुआ करते है।जिनेंद्र भगवान ने जिस वृक्ष के नीचे बैठकर के केवल ज्ञान को प्राप्त किया है वे सभी वृक्ष अशोक वृक्ष कहलाते हैं ।
भगवान के आठ प्रतिहार्य हुआ करते हैं, जिसमें से एक अशोक वृक्ष होता है।मुनि श्री ने 28 वे श्लोक का अर्थ बताते हुए कहां कि हे भगवान अशोक वृक्ष के नीचे बैठे हुए किरणें बिखरते हुए आपका स्वर्ण मयी शरीर ऐसे शोभित हो रहा है जैसे काले बादल से किरणे बिखरते हुए सूर्य दीप्तिमान हो रहा हो।