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आष्टा । किसी ऐतिहासिक तथ्य को प्रमाणित करने के लिए उसके मौजूदा भगनावशेष ही पर्याप्त होते हैं, क्योंकि किसी स्थान की ऐतिहासिकता-पुराणिकता का बखान तो उसके पुरावशेष इस पंक्ति के द्वारा बयां करते हैं कि- ‘खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी’ यह उक्ति म.प्र. के सीहोर जिले की आष्टा तहसील के ग्राम भँवरा (वर्तमान नाम), माताजी का भँवरा, इलाही माता का भँवरा और गढ़ भँवरा (प्राचीन नाम) के लिए पर्याप्त है। वैसे ग्राम भँवरा तहसील या जिलास्तर पर किसी पहचान का मोहताज नहीं है, लेकिन पुरातात्विक, ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से संपन्न और वैभवशाली रहे ग्राम भँवरा के इतिहास के पन्नों से धूल हटाने के प्रयास आजादी के इतने वर्षों बाद भी न होना चिंता का विषय है।

जय हो इलाही माता की..गढ़ भँवरा

प्रशासनिक उदासीनता, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और विकास कार्यों का वास्तविक प्रकाश ग्राम भँवरा तक न पहुंच पाना इसके मूल कारण रहे हैं। प्रदेश स्तर पर भँवरा ग्राम की पहचान इसलिए होना चाहिए, क्योंकि धार्मिक दृष्टि से इसका महत्व किसी शक्तिपीठ से कम नहीं, क्योंकि यहां चैतन्य रूप में शिवशक्ति स्वरूपा माँ दुर्गा का दरबार सजा हुआ है। भारत वर्ष में ग्राम भँवरा पहचान का इसलिए हकदार बन जाता है, क्योंकि यहां सनातनकाल से दो अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित है, जो कि देशभर में ग्राम भँवरा को एक ऐतिहासिक व गौरवशाली पहचान प्रदान करने के लिए पर्याप्त है, क्योंकि भँवरा को छोड़ देश में किसी भी देवस्थान पर सरकारी दस्तावेजों व साक्ष्यों के अनुसार सैकड़ों वर्षों से दो अखंड ज्योति नहीं जलती।

महाआरती की तैयारियां अंतिम चरण में

धर्म, संप्रदाय और जातीय विभिन्नता के बावजूद ग्राम भँवरा की सामाजिक समरसता राष्ट्रीय एकता को प्रतिपादित करती रही है। शक्ति स्वरूपा माँ जगदम्बिका का देश में एकमात्र द्वि-अखण्ड ज्योति दरबार म.प्र. के सीहोर जिले की आष्टा तहसील के ग्राम भँवरा में लगा है। इंंदौर-भोपाल राजमार्ग पर आष्टा तहसील मुख्यालय से चार किलोमीटर दूर जताखेड़ा जोड़ से र्दिक्षण की ओर 17 कि.मी. दूर विंध्याचल पर्वत से लगा हुआ ग्राम भँवरा है। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार यहां पर स्थित माताजी का मंदिर लगभग 2500 वर्ष पुराना है। पुरातत्व के अनुसार मंदिर के जीर्णोद्धार के दौरान मिले शिलालेख पर पाली भाषा में मंदिर की ऐतिहासिकता का प्रमाण मिलता है। यहां शिलालेख वर्तमान में जिला संग्रहालय में रखा है।


ग्राम भँवरा के चारों ओर 2 से 5 कि.मी. के दायरे में बसाहट के भी अनेक प्रमाण मिलते हैं। ऐसा कहा जाता है कि ग्राम भँवरा का वास्तविक नाम गढ़ भँवरा था, जिसकी पुरानी आबादी लगभग 96 हजार बताई जाती है। ग्राम के चारों ओर कृषि भूमि और खेड़ा पर अनेक प्राचीन मूर्तियां, इमारतों के खंडहर और बावडिय़ाँ भूमि की जुताई एवं खुदाई से प्राप्त होते हैं। भँवरा का प्राचीन स्वरूप (बसाहट) गढ़ भँवरा के रूप में इसी खेड़ापति जिस पर मटमैली सीमेंटनुमा मिट्टी की एक अलग ही वृहद परत बनी हुई है। जिसका उपयोग वर्तमान में ईंट बनाने व मकान निर्माण कार्यों में किया जाता है। खुदाई के दौरान यही पर आज भी प्राचीन बसाहट के वृहद साक्ष्य मिलते है।


“गढ़ भँवरा से औरंगजेब उलटे पैर लौटा”
ऐसी मान्यता है कि जब भारत वर्ष में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विरासतों, स्थलों को तहस-नहस के बर्बर-घृणित-वीभत्स अभियान में मूर्तिभंजक औरंगजेब लगा हुआ था, तब वह गढ़ भँवरा भी पहुंचा था। औरंगजेब ने तय कर रखा था कि वह हिन्दुओं के प्रत्येक देव स्थल के सम्मुख जाएगा और तीन आवाज लगाएगा, अगर उसे वहां से किसी चमत्कारी स्थान की अनुभूति होगी, तो उसे नष्ट नहीं करेगा। जब औरंगजेब ने गढ़ भँवरा में माँ दरबार के सम्मुख आवाज लगाई तो उसे कुछ विशेष अनुभूति हुई और वहां पर दण्डवत प्रमाण करते हुए इलाही नाम से संबोधित करके गया। तभी से लंबे समय तक भँवरा को इलाही माता का भँवरा के रूप में भी पुकारा जाने लगा। शिलालेख पर औरंगजेब के समय की मुहर उत्कीर्ण होने के प्रमाण मिले थे।

जो दो दशक पूर्व मंदिर के जीर्णोद्धार (गांव नागल) के समय नष्ट हो गए। कुछ वर्ष पूर्व यहां माताजी के गर्भगृह में ही निर्माण कार्य के दौरान तीन पिंडीनुमा मूर्तियां निकली, जिन्हें वर्तमान में वैष्णोदेवी के रूप में पुकारा जाता है और माँ इलाही के साथ वैष्णवी धाम भी कहा जाता है।

“राजा वीरसेन का साधना केंद्र भँवरा”

बाबू देवकीनंदन खत्री लिखित उपन्यास चंद्रकांता संतति के अनुसार आष्टा के राजा वीरसेन का गढ़ भँवरा में तांत्रिक साधना केंद्र था। 1982-83 में आष्टा के एसडीओ एस. खींची ने इस उपन्यास का संदर्भ देते हुए एक लेख भी समाचार पत्रों में प्रकाशित किया था, जिसमें उल्लेख था कि ग्राम भँवरा में माँ दुर्गा मंदिर, शिवालय, बावड़ी एवं कुंड आदि का लंबे समय तक तांत्रिक साधना केंद्र के रूप में उपयोग किया जाता रहा। ग्राम की बड़ी बसाहट एवं अभी भी विद्यमा पुराने स्थान पर इस बात की पुष्टि करते हैं, जिसमें सात-आठ स्थान प्रमुख है, जो यहां के ऐतिहासिक प्रमाणों का सजीव दर्शन कराते हैं।
1) छायन अथवा छावनी- ग्राम भँवरा में वर्तमान बसाहट से करीब एक किमी आगे ऊंचे स्थान पर छायन नामक जगह है। यहां पर जो पुराने चिन्ह, अवशेष मिलते हैं, वे इसे छावनी का रूप प्रदान करते हैं। यहां पर अनेक बार मिट्टी के बड़े नांद निकले, जिसमें पानी भरा जाता था, जिसकी लंबाई-चौड़ाई इतनी थी कि एक साथ बारह घोड़े पानी पी सकते थे, इसलिए इसे सैनिक छावनी के रूप में मान्यता मिली। बाद में इसे छायन नाम से पुकारा जाने लगा।


2) सिलावट वाली-यह ग्राम भँवरा का एक ऐसा स्थान माना जाता है, जहां पर शिल्पकारों की बस्ती रहती थी। क्योंकि अब यहां की भूमि कृषि भूमि के रूप में उपयोग में होने लगी है। यानी इस भूमि पर अनेक शिल्पकारों के साक्ष्य मिले हैं और खुदाई एवं जुताई करने पर अभी भी निकलते है।
3) लखेरेवाली – यह स्थान उस समय में चूड़े, कंगन निर्माण के रूप में रहा होगा। यहां बड़े स्तर पर मनोहारी एवं महिलाओं के प्रसाधन संबंधी वस्तुओं का निर्माण होता था, जिसके समय-समय पर अनेक साक्ष्य मिले हैं।
4) फौज वाला-ग्राम भँवरा से कुछ ही दूरी पर स्थित फौजवाला एक ऐसा स्थान है, जिसे अब फौजवाला भी कहा जाता है। यहां पर भी उस समय के शासक के घुड़सवार, फौज और सैनिक आदि ठहरते थे।
5) चौमुखा- यह ऐसा ऊंचा स्थान है, जहां से आज भी समूचे भँवरा का अवलोकन किया जा सकता है। यहां पर वर्तमान में 50-60 परिवारों की बस्ती है। गढ़ भँवरा के समय उस काल के शासक ने अपनी सुरक्षा की दृष्टि से चौमुखा को स्थापित किया था।
6) सिद्ध महाराज-ग्राम से 4-5 किमी दूर छायन से आगे सिद्धेश्वर नामक शिवजी का प्रमुख स्थान है। यहां पर एक बड़ा बाग भी है। इसे किसी महात्मा की समाधि स्थल के रूप में मान्यता मिली है। यहां शिवरात्रि पर विशेष धार्मिक आयोजन, सामूहिक विवाह और भंडारे होते हैं, जिसमें आसपास के ग्रामों के श्रद्धालु आते हैं।


7) बावड़ी वाले अष्टविनायक – ग्राम भँवरा में पटेल की बावड़ी पर अष्टभुजाओं वाले बड़े आकार में भगवान गणपति की प्राचीन प्रतिमा है, जहां पर चतुर्थी पर ग्रामवासी बड़े गणपति की पूजा के लिए आते हैं। उसी के समीप 100 सीढ़ी वाली प्राचीन बावड़ी थी जिसमें वर्षभर गांव के आधे से अधिक लोग अपने पशुओं को चड़स के द्वारा पानी पिलाते थे। जिसे अब आधुनिक रूप दिया गया है।
8) सुरक्षा द्वार पर खड़े है खेड़ापति- पुराने समय में भँवरा के लिए सीहोर-भोपाल से प्रवेश द्वार के रूप में धनपीपली स्थान को माना जाता है। यहां पर पहले बड़े स्तर पर लूटपाट की घटनाएं होती थी, लेकिन गांव की सुरक्षा की दृष्टि से यहां पर आज भी खेड़ापति सरकार (हनुमानजी) विराजमान है। जिसे बड़ा हनुमान मंदिर के रूप में जाना जाता है। उन्हीं की छत्रछाया में वर्तमान में बजरंग कालोनी ने आकार लिया है अर्थात् भँवरा की बसाहट का प्राचीन तरीके से पुन: चौतरफा विस्तार हुआ है।
महिलाएं तेल चढ़ाती हैं ।


चैत्र नवरात्रि की दशमी को नाथ पुजारी माताजी को तेल चढ़ाता है। इसके बाद ग्राम की महिलाएं दूसरे दिन तेल चढ़ाती है। बाकी 12 व 13 तिथि को तेल उतारने का क्रम चलता है। इसमें श्रद्धालु महिलाएं विशेष रूप से भाग लेती है। यहां ऐसा अवसर विशेष होता है, जब वर्ष में एक बार गांव की प्रत्येक बेटी यहां पर हल हाल में पहुंचती है।

लगता है पांच दिवसीय मेला”

महापूजन के एक दिन पहले से ही पांच दिवसीय मेला प्रारंभ होता है, जिसमें आसपास के दूरदराज के गांवों से भी लोग भाग लेने आते हैं और माताजी के दर्शन करते हैं। पिछले वर्ष की गई मन्नत के पूर्ण होने पर अपनी श्रद्धापूर्वक भेंट चढ़ाते हैं और प्रसाद वितरण करते हैं।

“भँवरा से निकली मूर्तियां जिला संग्रहालय में”

ग्राम भँवरा में खुदाई एवं निर्माण के दौरान अनेक हिन्दू धर्म की मूर्तियां एवं जैन धर्म की मूर्तियां प्राप्त होती रही है। अनेक मूर्तियां खंडित स्वरूप में भी प्राप्त हुई है। यहां पर निकलने वाली अनेक मूर्तियां जिला संग्रहालय सीहोर में जिला संग्रहालय की आभा बढ़ा रही है।

“जैन मंदिर”

ग्राम भँवरा में अनेक जैन धर्म संबंधी मूर्तियां भी मिलीं। ग्राम में एक जैन मंदिर भी है, जहां स्फटिक की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजित है, जो ग्राम से ही प्राप्त हुई है।

“दो कुंड वाली बावड़ी”

माँ शक्तिस्वरूपा भगवती की प्रतिमा चैतन्य रूप में है। जो श्रद्धालु याचक के रूप में माँ के दरबार में पहुंचते हैं, उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। सच्चे साधक को माँ के यहां चारों पहर में अलग-अलग रूप में दर्शन भी होते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां पर भगवती का दरबार कभी साधना का मुख्य केंद्र था,क्योंकि माँ के दरबार के सम्मुख एक बावड़ीनुमा बड़ा जलाशय है,

जो 120 फीट लंबे, 50 फीट गहरे और 30 फीट चौड़ाई के साथ दीवारों से घिरा है। बावड़ी में 100 से अधिक सीढिय़ां है। इसके जल का उपयोग आमजन पेयजल के रूप में करते हैं। ग्राम के अनेक बड़े व गहरे जलाशय कई बार सूख गए, लेकिन माताजी की इस बावड़ी में कभी भी जलाभाव नहीं हुआ। इस बावड़ी में भी दो कुंड बने हुए हैं। दूसरे कुंड में तो कभी भी जल खत्म नहीं होता।

“दरबार के समीप शिवालय”

यह शाश्वत मान्यता है कि जहां शिव है वहां शक्ति है। इन दोनों के बिना शिवशक्ति का अधिष्ठान अधूरा ही माना गया है, तभी तो इलाही माता के ग्राम भँवरा में माँ दुर्गा के दरबार से लगभग 20 फीट की दूरी पर उत्तर दिशा में भूतभावन भोलेनाथ विराजमान है। शिवालय में बड़े आकार में शिवलिंग स्थापित है। साथ ही माँ जगदम्बिका के दरबार के आसपास चार कुंड बने हुए हैं। इन सभी को देखने से प्रतीत होता है कि यह स्थल दुर्गा तांत्रिक साधना का मुख्य स्थान था। ये सभी स्थान पुरातत्व के अनुसार 2500 वर्षों से अधिक पुराने हैं। देवी मंदिर, शिवालय और बावड़ी एवं कुंड की बनावट वास्तुकला के अनुरूप की गई है। देखने वाले अगर देवी उपासक या वास्तुविद् हों, तो तुरंत जान लेते हैं कि यह स्थल कभी बड़ा साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।


दोनों नवरात्रि पर हवन
माँ भगवती के दरबार में आश्विन शुक्ल (क्वांर प्रतिपदा नवरात्रि) एवं चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नवरात्रि) में दुर्गा सप्तशती का विधिपूर्वक पाठ किया जाता है। दो दुर्गापाठी ब्राह्मण इस कार्य को पूरे नौ दिन मंदिर में आकर सम्पादित कराते हैं। नवमी के दिन मध्य रात्रि से हवन प्रारंभ होता है, जो दशमी की सुबह 5 बजे तक चलता है। चैत्र शुक्ल 13 से यहां पर पांच दिवसीय मेला भी भरता है। इसी दिन मध्य रात्रि के बाद दुर्गाजी का महापूजन सभी ग्रामवासियों की तरफ से सामूहिक रूप से किया जाता है। सभी लोग पूजा की थाल अपने घर से सजाकर लाते हैं और उसे दो बड़े थालों में इकट्ठा कर माताजी के चरणों के पास रख देते हैं। गांव के दोनों पटेल इस पूजा को सम्पादित करते हैं। नवरात्र में पूरे 9 दिन महाआरती भी आयोजित की जाती है।

“विशेष मध्य आरती”

दोनों नवरात्रि पर नवमी को होने वाले हवन में बीच में दुर्गाजी की विशेष मध्य आरती होती है, जिसका विशेष महत्व है। यहां हवन के समय होने वाली आरती अन्य जगहों पर होने वाले दुर्गा हवन से अलग महत्व रखती है।

“करंज तेल के दो अखंड दीप”

माताजी के दरबार में अखंड ज्योति एक तेलीय फल ‘करंजÓ ग्रामीण नाम कंजी और वनस्पति नाम पोंगामियाग्लेबरा करंज के तेल से जलती है। इस करंज को गांव में ही करंज के पेड़ों से प्राप्त कर ग्राम के ही तेली समुदाय घाने में निकालकर देते हैं। अखंड ज्योति का काम ग्राम के परमार समाज द्वारा सामूहिक रूप से लगान देकर (चंदा इकट्ठा कर) किया जाता है। वसूली पटेल लगान वसूली के साथ यहां धनराशि एकत्रित करते हैं। देश में कहीं पर भी भँवरा को छोड़कर दो अखंड दीप और वह भी करंज के तेल से जलने के प्रमाण नहीं मिलते हैं।

“नाथ लोग करते हैं पूजा”

ग्राम में चार-पांच परिवार नाथ संप्रदाय के हैं, जो क्रमवार रूप से माताजी की सेवा का कार्य करते हैं। दिन-रात माँ के दरबार में रहकर नाथ पुजारी अखंड ज्योति एवं माँ की सेवा में तत्पर रहते हैं, जिन्हें ग्रामीणों द्वारा वर्षभर की एक निश्चित राशि भेंट स्वरूप दी जाती है। ग्राम का प्रत्येक परिवार नाथ पुजारी को गेहूं दान देता है एवं जो मंदिर में चढ़ावा आता है, वह भी नाथ को मिलता है। प्रशासन की तरफ से नाथ पुजारी को 1200/- रु. प्रति वर्ष दिए जाते हैं, जो आज के समय में विचारणीय एवं चिंतनीय है।
देश के ह्रदय प्रदेश मध्यप्रदेश की राजधानी भोजपाल (भोपाल) से सटा सीहोर जिला मालवा पठार क्षेत्र के मध्य में विंध्याचल रेंज की तलहटी में स्थित है। सीहोर जिले का एक भव्य और वृहद अतीत है,क्योंकि ‘सिद्धपुर’ सीहोर का प्राचीन नाम है। ऐतिहासिक कालक्रम को देखे तो शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव, बौद्ध और नाथ पुरोहितों ने सीहोर को अपनी महत्वपूर्ण कार्यनीति का प्रमुख केंद्र बनाया। मध्य प्रदेश के गठन के बाद, राज्य की राजधानी भोपाल, सीहोर जिले का एक हिस्सा था। 1972 में इसका विभाजन हुआ और एक नया जिला भोपाल बना।

सीहोर अतीत में अवंतिका (उज्जैनी) का अभिन्न अंग रहा है। बाद में यह मगध राजवंश, चंद्रगुप्त प्रथम, हर्षवर्धन, अशोक महान, राजा भोज, पेशवा प्रमुखों, रानी कमलावती और भोपाल राजवंश के नवाबों के संरक्षण में था। सीहोर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक एजेंटों और निवासियों का मुख्यालय बना रहा और सीहोर ने 1857 में सिपाही विद्रोह में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सीहोर जिले को भौगोलिक दृष्टि से देखें तो समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 1500 फीट से 2000 फीट है। यह कुल 6578 किलोमीटर के क्षेत्र को समाहित करता है। नर्मदा, पार्वती, दुधी, नेवज, कोलार, पापनास, कुलास, सीवन और लोटिया नदी यहां प्रमुख है। सीहोर जिले को पांच तहसीलों सीहोर, आष्टा, इछावर, बुदनी और नसरुल्लागंज में विभाजित किया हैं। सीहोर की भांति आष्टा का भी ऐतिहासिक,धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है और यह अब भी विद्यमान है, क्योंकि आष्टा इंदौर व भोपाल के लगभग बीच में स्थित है। यहां माँ ‘पार्वती, नदी है। मान्यता के अनुसार मंदिर के शिवलिंग तक पार्वती का जल पहुँच जाता है। पीले सोने के रूप में गेहूं-सोयाबीन के लिए देश में विख्यात आष्टा बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा है।

यहां पुराने आष्टा में पहाड़ पर जैन मंदिर है, जिसे स्थानीय लोग ‘किला, पुकारते हैं। यहां भगवान नेमिनाथजी की प्रतिमा है। तालाब के पास हनुमानजी का मंदिर है जो खेड़ापति मंदिर कहलाता है। आष्टा की भव्यता, दिव्यता और समरसता को ईलाही माता का आलोकिक-अद्भुत व जागृत धाम निरंतर निखारता है। भँवर गढ़ अर्थात् वर्तमान में ग्राम भँवरा आष्टा से 17 किमी दूर है और यहाँ दोनों नवरात्रि की पूजा में पूरे नौ दिन प्रदेशभर के श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
समरसता का माहौल- ग्राम भँवरा में हिन्दू, मुस्लिम जैन व अन्य सभी समरसतापूर्वक रहते हैं। ग्राम में सभी जाति के लोग निवास करते हैं, जो शासक व्यवस्था का पूर्ण प्रमाण हैं, लेकिन गांव में आज भी कृषि के अलावा कोई उद्योग या रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाने वाले उपक्रम नहीं चलते, जिससे भँवरा एवं आसपास के गांवों के बेरोजगार युवाओं के सामने रोजगार का बड़ा सवाल खड़ा है। अगर दर्शनीय स्थल के महत्व एवं यहां की मानव श्रमशक्ति को ध्यान में रखकर प्रशासन, जनप्रतिनिधि एवं सरकार इस क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता दें तो यह स्थान देशभर में नई ख्याति अर्जित कर सकता है।

अशोक परमार

( इस लेख के लेखक है,लेख उनके द्वारा जुटाई जानकारी के अनुसार है,इसमें हमारी सहमति जरूरी नही है। )

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