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आष्टा। राजा दशरथ ने सत्य वचन को निभाया,राम ने सत्य वचन का पालन किया और विभीषण ने सत्य का साथ दिया। रावण ने सत्य का पालन नहीं किया।किस का क्या हुआ इतिहास गवाह है।हम सब की यात्रा सत्य की ओर होना चाहिये।बुरी आदतें वक्त रहते न बदली जाए तो बुरी आदतें आपका वक्त बदल देगी‌।

भाग्यशाली अवसर का मिल जाना विपरीतता में भी अवसर को ढूंढना भी एक लक्ष्य को ढूंढना है। अपने अंतिम लक्ष्य को पहचाने की मुझे क्या करना है ।यह जिंदगी अभावों से भरी हुई है, फिर भी हम उसी में उलझे हुए है। सारी कमियों को दूर करने का प्रयास करें ।हर व्यक्ति कहता है बहुत कुछ है मेरे पास पर सब कुछ नही ।संसार की दौड़ में अभावों का नाम ही संसार है। रिक्तता ही संसार की रीत है ।दौड़ते ही दौड़ते दम तोड़ता है आदमी ,तुम्हारे जीवन मे अभाव ही अभाव है तो अपने आपको अभाव से बचाओ ओर हमें हमेशा सत्य का साथ देना चाहिए। उक्त बातें नगर के श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन दिव्योदय अतिशय तीर्थ क्षेत्र किला मंदिर पर चातुर्मास हेतु विराजित पूज्य गुरुदेव मुनिश्री निष्पक्ष सागर महाराज ने आशीष वचन देते हुए कहीं।

आपने कहा अवसर की पहचान अब हमें आना चाहिए । संसार में रिक्तता है। अभावों का नाम ही संसार है।हर प्राणी के जीवन में कुछ न कुछ अभाव है। कोई भी पूर्णतया नहीं है। दूसरे को नहीं स्वयं को देखें।आज व्यक्ति स्वयं के दुःख से दुःखी नहीं बल्कि पड़ोसी के सुख से अधिक दुखी हैं। मृत्यु एक सत्य है फिर इससे डरते क्यों हैं।मुनिश्री ने कहा तृष्णा वृद्धों में आज भी युवाओं की तरह जागृत है।

आचार्य भगवंत विद्यासागर महाराज कहते हैं कि तृष्णा को घटाएं।पूरा जीवन दौड़ और होड़ में व्यतीत हो रहा है।आज भी मैं में में में लगे हो।काया और माया छूटने वाली है।आठ कर्म रूपी बेड़ी आपको जकड़े हुए हैं।मूक माटी में आचार्य भगवंत विद्यासागर महाराज ने पागल की परिभाषा लिखी है ।पागल अर्थात जो पापो को गलाने में लगे रहे वह पागल है ।साधु- संतों ने तो पापों को गलाने के लिए त्याग तपस्या का मार्ग चुना और आप लोग पापों को बढ़ाने में लगे हुए हैं। व्यक्ति अकेला आया था और अकेला ही उसे जाना है।वह संसार में अटका और भटका हुआ है। जिनको अपना मानते हैं वह ही आपका साथ छोड़ते हैं।

गुरु देव कहते थे कि बोलों तो हित मित प्रिय वचन बोले, अन्यथा मौन रहे।आपके वचन आपके आदर्श है । महापुरुष महापुरुष होते हैं। ज्ञान- ध्यान में लीन रहो। आत्मा की आराधना करों। कर्ण प्रिय बोले,घातक नहीं बोलें। थोड़ा मायाचारी से ऊपर उठकर पुरुषार्थ करें।संत ने डाकू से कहा मैं तो पापों को रोक चूका हूं तुम कब रुकोगे।डाकू ने कहा मेरा काम लूटना, मारना, पीटना है। संत बोले अपने परिवार के लिए लूट पाट, चोरी, हत्या आदि करते हो। इन पापों को तुम्हें अकेले ही भोगना है।

बाहर की होड़ और दौड़ कभी भी समाप्त नहीं हो सकती है। खंडित हो गया महल फिर भी मरम्मत करते हैं।बाल सफेद हो गए हैं उन्हें आप काले कर रहे हैं। आचार्य भगवंत ने मूकमाटी में लिखा है पाप से घृणा करों पापी से नहीं। जो कल तक हैरान और परेशान था वह सदा संगति अच्छी रखें।हम साधक व संत नहीं बने तो कम से कम अच्छे व्यक्ति तो बने।विपरितता में अवसर नहीं छोड़े।

जब तुम दुसरो को देखते है तो दुखी होते है जब तुम स्वयं को देखते हो तो असलियत पता चलती है हम कहा है ।स्वामित्व ,बुद्धि, कृतित्व बुद्धि अनादि काल से चल रही है ।पूरा जीवन दौड़ ओर होड़ में निकल रहा है ।आज का मानव स्वामित्व बुद्धि में मेरी पत्नी ,मेरा बेटा ,मेरा मकान इसी में उलझा हुआ है ।

आज का मानव मूल स्वभाव से दूर होता जा रहा है ।आत्मा तो अनादि है क्या माया ,सब छूटने वाली है ।आत्मा अनादि काल से संस्कारों में डूबी हुई है।विपरीतता में अवसर को ढूंढ लेना विरले लोगो की बात है।पशु- पक्षी भी अपना पेट भर लेते है ।यथार्ताता की ओर आओ भूलो नही।कर्मो में गाफिल होकर अपना अमूल्य समय व्यर्थ मत गंवाओ ।स्वामित्व बुद्धि से ऊपर उठो ,जिनको अपना माना उनसे ही दुख पाया है लोगों ने।

“संगति हमारे विचारों को बदल देती है- मुनिश्री विनंद सागर महाराज
17 को पिच्छिका परिवर्तन समारोह”

वर्तमान में उपादान इतना कार्यकारी नहीं जितना निमित्त है। हमारे अंदर इतनी क्षमता नहीं है कि माहौल कुछ ओर हो और हमारे विचार कुछ ओर। हम माहौल के अनुसार अपने विचारों को बदल लेते हैं ,अपने विचारों पर अडिग नहीं रह पाते इसलिए संगति काफी सोच समझकर करना चाहिए।संगति के अनुसार ही हमारे संस्कार निर्मित होते हैं।

संगति हमारे विचारों को बदल देती है।इसलिए सर्वोत्तकृष्ट संगति करें,जो हमें अंधकार से निकालकर उजाले की ओर ले जाएं जो चिदानंद स्वरूप हैं।संसार की सभी आत्माओं में श्रेष्ठ हैं, उनकी संगति करनी चाहिए ।

उनसे मित्रता करनी चाहिए तभी उन जैसे विचार उन जैसी क्रिया उन जैसे गुण एवं संस्कार प्राप्त होंगे। जिंदगी में एक दोस्त होना बहुत जरूरी है। एक ऐसा दोस्त जिसे हम अपने मन की बात कह सकें और वह किसी से ना कहे ,हर कार्य करने के पूर्व विचार विमर्श कर सकें ।


उक्त बातें नगर के श्री चंद्रप्रभ दिगंबर जैन मंदिर अरिहंतपुर में विराजमान मुनि श्री विनंद सागर जी महाराज ने आशीष वचन देते हुए कहीं । आपने कहा
लेकिन हमारे दोस्त कैसे हैं राग के,भोग के,जैसी मित्रता होती है वैसी परिस्थिति हुआ करती हैं। दोस्ती संसार में डूबा भी सकती हैं और उबार भी सकती है ।

हम एक बार स्वयं का अवलोकन जरूर करें कि मैं जीव हूं ,आत्मा हूं ,शरीर से भिन्न हूं, शुद्ध आत्मा हूं ऐसा करने से आत्मतत्व पर जो श्रद्धान होगा वही सम्यकदर्शन है ।ज्ञानी जीव सदैव आत्मतत्व को निहारते रहते हैं। वह परिग्रह होते हुए भी अनासक्त होकर रहते हैं ।भरत चक्रवर्ती भी 6 खंड के राजा होते हुए भी वैरागी थे‌सदा उनका चिंतन एकोहम,शुद्धोहम ,मैं परिग्रह से रहित हूं ,विषयों से रहित हूं ऐसे चिंतन करने वाले जीव ही पल भर में संसार से मुक्ति को प्राप्त कर जाते हैं ।

मुनिश्री विनंद सागर महाराज ने कहा यदि हमें जन्म मरण के बंधनों से मुक्त होना है तो स्वयं को देखना आवश्यक है। शुरुआत में राग -द्वेष सहित धूमिल छवि दिखेगी ,बाद में उज्जवलता भी दिखाई देगी।कायोत्सर्ग स्वयं को निहारने का एक अच्छा अवसर है ।संसार से हटकर ध्यान को स्वयं में लाने का प्रयास कायोत्सर्ग है।हमारी रुचि जिस ओर होगी ,उधर हमारा मन बार-बार दौड़ता है। अतः यदि हमारी रुचि आत्मतत्व की ओर होगी तो हमारा ज्ञान आत्मा की ओर आने लगेगा ।इस संसार में जिनेंद्र भगवान के अलावा कोई शरण नहीं है ।संसार में सब रिश्ते -नाते सब झूठ के दृश्य हैं ।बुढ़ापे में पत्नी ,पुत्र, भाई -बहन यह सब कोई मेरे हितकारी नहीं ।

संपत्ति के कारण ,स्वार्थ के कारण ही यह संबंध हैं।
वक्त आने पर वक्त बता देता है कौन अपना है
मुनिश्री ने कहा जो समय पर साथ दे वही अपने हैं बाकी सपने हैं। विकट समय में केवल जिनेंद्र भगवान ही जो परम हितकारी हैं ,सच्चा मार्ग बताने वाले हैं वही परम मित्र हैं।ऐसा चिंतन हमें स्वयं को भिन्न देखने में सहायक होता है ।इस संसार का परम सत्य है मृत्यु। हम मृत्यु को टाल नहीं सकते ,जब जिस समय जहां निश्चित है वह होगी ।

एक राजा को मुनिराज ने बताया आपकी मृत्यु सायंकाल में सांप के काटने से होगी। राजा ने मृत्यु टालने के लिए कांच के सात बॉक्स बनवा उसमें सायंकाल में जाता है तो वहां पहले से ही बैठा सांप उसे काट लेता है और वह मरण को प्राप्त हो जाता है ,इसलिए मृत्यु से पहले मृत्युंजयी होने का पुरुषार्थ करना चाहिए।


गुणानुवृद्धि पिच्छिका परिवर्तन 17 नवंबर को भक्तामर महोदधि उच्चारणाचार्य श्री विनम्र सागर जी महाराज के परम प्रभावी शिष्य श्रमण श्री 108 विनंद सागर जी मुनिराज व ऐलक श्री 105 विनमित सागर जी महाराज का “गुणानुवृद्धि पिच्छिका परिवर्तन” 17 नवंबर को दोपहर 1 बजे होने जा रहा है।श्री चन्द्रप्रभ मंदिर समिति व मुनि सेवा समिति अरिहंत पुरम ने
ऐसे पावन प्रसंग पर सपरिवार सभी को सादर आमंत्रित किया है।

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