Spread the love

श्री चंद्र प्रभु दिगंबर जैन मंदिर अरिहंतपुरम में विराजमान विनंद सागर महाराज ने कहा जो जीव पापो से भयभीत होते है वे आत्महित का पुरुषार्थ करते है । मुनिश्री ने गतियों का वर्णन करते हुए कहां चार गति मनुष्य, त्रियंच (पशुगति) ,देव ओर नरक गति होती हैं । मनुष्य अपने कर्म उदय से इन गतियों को प्राप्त करता है । पाप कर्मों के फल स्वरुप अनेक प्रकार के असहाय दुखों को भोगने वाले जीव विशेष नारकीय कहते हैं यह गति नरक गति कहलाती है ।
ऐसे जीव जो एक दूसरे में प्रीति परिणाम नहीं रखते हुए नारत कहलाते हैं । नारकियों का शरीर अशुभ विक्रियक अत्यंत दुर्गंधित एवं डरावना होता है शरीर का रंग काला धुएं के समान होता है ।

नारकियों का जन्म उपपाद जन्म हुआ करता है । कोई जीव नरक में जन्म लेकर जब ऊपर से नीचे गिरता है तो वह नरक भूमि का स्पर्श पाते ही हजारों बिच्छू के डंक मारने की पीड़ा का दुख सहन करता है और पुनः इसी प्रकार स्पर्श होकर के उछलता है । नरक में इतनी भूख लगती है तीन लोक का अनाज यदि खाने को मिल जाए तो भी उसकी भूख नहीं मिटती है । प्यास इतनी लगती है कि सारे समुद्र का पानी भी पी ले तो भी उसकी प्यास मिटती नहीं है । किंतु नारकीयो को अन्न का एक दाना और पानी की एक बूंद भी नहीं मिलती । नारकी वहां की दुर्गंध वाली मिट्टी खाते हैं उन्हें वहां भी भूख जितनी नहीं मिलती । अतः उनकी भूख शांत नहीं होती । अगर उस दुर्गंध मिट्टी का एक कण भी मध्यलोक में आ जाए तो 4 कोस क्षेत्र के जीव उसकी दुर्गंध से मरण को प्राप्त हो जावे।

इस प्रकार पाप का फल नरक के असहनीय दुखों को सहन करके जीव भोगता है । यह दुख छह प्रकार के होते है । नारकि जहां रहते हैं उन बिलों में अंधकार एवं मरे कुत्ते और सूअर के शरीर की गंध आती है। उससे अधिक दुर्गंध वाली मिट्टी वहां पर है । छाया चाहते हैं तो सेमर के वृक्ष से ऊपर तलवार के ,कांटे के समान पत्ते गिरते हैं जो शरीर को छिन्न भिन्न कर देते है । यह क्षेत्र संबंधी दुख है । जबरदस्ती पकड़ने वाली लोहे की गर्म पुतलियां खाने के लिए आती हैं । भयानक असुरदेव लड़ाने में हमेशा तैयार रहते हैं ।अग्नि की ज्वालामुखी से युक्त यह बिल रहते हैं । जहां पर अत्यधिक उष्णता के कारण असहनीय दुख का अनुभव होता है ।

नरको असुरदेव नारकियो को परस्पर लड़ाते रहते हैऔर उन्हें स्वयं भी मारते हैं पीड़ा पहुंचते हैं । बैर के कारण एक दूसरे को दुख पहुंचाते हैं उसके खंड-खंड करके फिर कढ़ाई में डालते हैं । निष्प्रतिकर और दुसह जितने भी रोग इस संसार में हैं वे सब के सब नारकियों के शरीर के रोम रोम में होते हैं एक शरीर में 5 करोड़ 68 लाख 99 हजार 584 रोग होते हैं। और एक अंगुल में 96 रोग हुआ करते हैं । नारकियों का शरीर पारे के समान होता है । जिसको खंडित करने पर वह पुनः पूर्व आकृति को धारण कर लेता है जुड़ जाता है । अतः नरको में यह पीड़ा तब तक भोगना पड़ती है जबतक उसकी आयु पूर्ण नहीं होती नारकियों का कभी अकाल मरण नहीं होता । अतः मुनिश्री विनंद सागर जी महाराज ने कहा पापकर्मो का फल भोगना ही पड़ता है । इस प्रकार हमें पाप क्रिया से भयभीत होना चाहिए जो नरक का कारण है । अतः पाप करने से डरना चाहिए प्रत्येक जीव की रक्षा और हित करने का उपाय ही हमें इन सब पापों से बचा सकता है । यह मानव जीवन इन सब कर्मों से मुक्ति का हेतु है अतः हमें इसको सार्थक करने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।

“घर की सफाई के साथ आत्मा की सफाई भी अवश्य करें — मुनिश्री निष्प्रह सागर महाराज”

दीपावली पर घर और दुकान की सफाई तो सभी किया करते है पर अपनी आत्मा की सफाई भी कर लिया करो ,यही आत्मा की सफाई हमें भव -भव के भटकने से मुक्ति दिलाएगी। शुद्धि आठ प्रकार से होती है ,यह व्यवस्था मुनिराजों के लिए है।अधिक बोलना विभाव है ,विकृति है। सच्चा साधु बोलता कम है वचनों के प्ररूपण होने से थोड़ा सा भी वचन गलत बोल देने से जिनवाणी का दोष लगता है ।मिथ्यात्व प्रथम गुणस्थान में होता है।न्याय और नीति का श्रीराम ने उल्लंघन नहीं किया।श्री राम चाहते तो सीता को तत्काल ले आते। राजा का मंत्री अच्छा और अनुभवी होना चाहिए।जहां काम,क्रोध,मोह,माया आ जाए वहां विनय नहीं होती। चापलूसी करने वालों से बचना चाहिए।साधु और समाज दोनों धर्म के लिए अपना -अपना सहयोग देते हैं।जभी धर्म आगे चलता है। उक्त बातें नगर के श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन दिव्योदय अतिशय तीर्थ क्षेत्र किला मंदिर पर चातुर्मास हेतु विराजित पूज्य गुरुदेव मुनिश्री निष्प्रह सागर महाराज ने आशीष वचन देते हुए कहीं।

मुनिश्री ने कहा अगर आप किसी के अच्छे मित्र हैं तो अपने मित्र की गलती को बताएं। श्रावक को साधु की विनय करना चाहिए। कभी-कभी नीम और मैथी खाना पढ़ती है, रोज नहीं।इसी प्रकार हित मित वचन बोलना चाहिए।मन में विकृतियां नहीं आना चाहिए। रत्नात्रय की शुद्धि शरीर में आ जाएं वहीं व्यक्ति कल्याण करता है।नवधा भक्ति व शुद्धि आवश्यक है। मुनिश्री निष्प्रह सागर महाराज ने कहा वक्ता के भाव देखना चाहिए। साधु -संतों के मन में कषाय हैं, मुंह फूला हुआ है,वचन तेजी से निकल रहें हैं तो भाव अच्छे नहीं हैं। आचार्य भगवंत विद्यासागर महाराज ने सबसे पहले मुनि दीक्षा के दौरान कहा संलेखना समाधि के लिए तैयार हो जाओं। सिथलाचार,हर कुछ बोलना,अंदर मिथ्यात्व बैठा है, समझों अभी साधु बने हैं। सम्यकदृष्टि को बड़ा बनना पड़ता है तथा बाप का भी बाप बनना पड़ता है। हमें अपने धर्म और संस्कृति को बढ़ाना होगा। अमृत कितना ही अच्छा हो, अगर जहर के साथ परोसेंगे तो क्या वह अमृत आप सेवन करेंगे। जहां राग,-द्वेष और कषाय हैं वहां मिथ्यात्व है।राग,-द्वेष और कषाय मन में हैं तो भाव शुद्धि नहीं। मुनिश्री ने कहा सबसे पहले शरीर को शांत करना चाहिए। दुनिया में जितने भी अज्ञानी, कमजोर व्यक्ति हैं वह जबाब देता है और ज्ञानी व्यक्ति शांत रहते हैं। संसार में सब क्षण भंगुर है। श्रीराम ने लंका को जीतने के बाद वापिस लौटाया।


विदुर जैसे विद्वान ने धृतराष्ट्र राजा को समझाया कि पांडवों को राज्य सौंप दो, धृतराष्ट्र नहीं माने, महाभारत हुई और परिणाम सभी जानते हैं।पूजा अर्चना कर रहे और मन में भाव अशुद्ध चल रहे हैं तो उक्त पूजा अर्चना का क्या लाभ। पूजा अर्चना के दौरान भावों में शुद्धता होना चाहिए। आप धर्म और पुण्यार्जन करने का उद्देश्य रखते हैं। विवेक और आगम पूर्वक क्रिया करें। गलत को गलत कहें।पाप और मिथ्यात्व से बचें।जिस प्रकार बच्चे को गलती पर डांटते हैं और समझाते हैं,उसी प्रकार साधु को भी गलती पर बताएं। धर्म शांति के लिए है। तुष्टिकरण की नीति हमसे नहीं बनती है।नय की व्यवस्था समझ मे आ जाये तो किसी प्रकार का विसंवाद ही नही होगा। जहां शरीर है ही नही उन्हें सिद्ध अवस्था कहते है ,जो अपने लक्ष्य को याद नही रखता है वह अपनी राह में आगे नही जा सकता है। हम ऊपर की ओर जाना चाह रहे कि नीचे की ओर राग द्वेष से हट कर अपनी वाणी में नम्रता रखो। निष्प्रह एक क्रिया है, निष्प्रह एक भाव है, अपेक्षा निग्रह का कारण है आग्रह मिथ्यात्व की कड़ी है ।

सबसे पहले वक्ता की भाव शुद्धि होना चाहिए जब भाव शुद्धि की व्यवस्था बने राग द्वेष से रहित होने पर ही भाव शुद्धि होती है।विकृति में भाव शुद्धि नही होती जो व्यक्ति आगमिक होता है प्रमाणिक होता है वह कैसे भी विपरीत परिस्थिति आ जाये अपने मार्ग से विमुख नही होता। परीक्षा में पास होना ही उत्तम भावों का परिणाम है।जिस प्रकार साधु अपने नित्य कर्मो में व्यवस्थित रहते है उसी प्रकार श्रावक को भी रहना चाहिए। जहां राग ,द्वेष ओर कषाय बैठी हुई है ,वहा मिथ्यात्व भी बैठा हुआ है ।बाहर से तो थोड़ा बहुत दिखता है अंदर से राग- द्वेष नही होना चाहिए ।अपने शरीर को शांत बनाया जाता है ,जितना भी कमजोर व्यक्ति हैं ,अज्ञानी है वही प्रतिक्रिया देता है ज्ञानी तो शांत बैठता है ।राम ने न्याय नीति का कभी उल्लंघन नही किया, चाहते तो सीता को धोखे से उठा लाते पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।

error: Content is protected !!