आष्टा । अष्टान्हिका महापर्व के अंतर्गत नंदीश्वर द्वीप महामण्डल विधान पूजन के चतुर्थ दिवस पूज्य मुनि श्री ने अपने उदबोधन मे कहा कि सु-आत्मा में कु-संस्कार घर कर जाते है,संस्कार जो भरे पड़े रहते है वे याद आ ही जाते है । जिनेंद्र भगवान के आश्रय से सभी संस्कार धर्म मे बदल जाते है शुभउप्योग में बदल जाते है।
मुनियों का धर्म शुभउपयोग मे ही लगा रहता है । हमे भी मुनियों के समान महावृतियो के समान शुभउप्योग में ही लगे रहना चाहिये,
सहज योग और हठ योग दो प्रकार के योग बताये है । तीर्थंकर भगवन जब दीक्षा लेते है वह हठ योग होता है,शन्तिधारा करना भी एक प्रकार का योग है । योग विद्या में अध्यात्म विद्या में सहज योग का ज्यादा वर्णन किया गया है ।
सम्यक स्थान में रहना चाहिए,आचार्य जिनशेन स्वामी ने कहा है कि मनु से ही मनुष्य बना है अपनी आत्मा का हमेशा हित ही करे विकारों से बचे,ओर हम सभी को शुभउप्योग में ही रहना चाहिए
जो जिनेंद्र भगवान को जानता है वह शुभउपयोगी होता है । जिनेंद्र भगवान को जान कर रहेंगे उनको जान कर जान आ जाती है अरिहंत शब्द जैनों की जान है,अरिहंत अर्थात कर्म शत्रुओं का नाश जिन्होंने कर लिया है अरिहंतो के चरण कमल की पूजा की महिमा न्यारी बड़ी भारी बताई गई है।
शुभउप्योग के लिए देवताओं को जानना पडेगा,
हमारे यहां नव देवता बताये हए है,अरिहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्व साधु, जिन धर्म ,जिनागम,जिन चैत्य जिन चैत्यालय, इस प्रकार हमारे यहां नव देवता बताये गए है हम को इनका ध्यान कर अपने जीवन को धन्य करना चाहिए दीक्षा से मोक्ष की प्राप्ति होती है,शांतिसागर जी महाराज आचार्यो के आचार्य कहे जाते है उन्ही की आचार्य परम्परा का निर्वहन जैन धर्म मे वर्तमान में चल रहा है,साधुगण उन्ही की परंपरा में अपनी तपस्या करते है ।